रविवार की कविता | गाँव अब भी संभावना है | कवि : शिव कुशवाहा


सभ्यता के पुराख्यान का एक पूरा ग्रन्थ

गाँवों ने रचना नहीं भूला है

सदियों के बाद भी वहाँ खड़े हुए हैं दरख्त

फैली हुई हैं उनकी बड़ी-बड़ी शाखाएँ


गाँव के चबुतरों पर सुस्ताते हुए लोग

मिथकीय चरित को जीवित कर

एक नई बहस को जन्म देकर

विचरते हैं एक कल्पनालोक में


जहाँ दिवास्वप्न में खोए हुए

कुछ किसान खेतिहर लोक संवादों का

एक बड़ा पिटारा खोलकर

डूब जाते हैं गँवई रूप, शब्द और रस में


जैसे साँझ होने पर पक्षी लौटते हैं

अपने घोसलों की ओर

उसी तरह सैकड़ों मील चलकर आए हुए लोग

लौट आए हैं अपनी जड़ों की ओर


घर की स्त्रियाँ चूल्हे की मंद आँच पर

फिर सेकेंगी रोटियाँ

और पतेली पर चढ़ी दाल की खदबदाहट

सन्नाटे को चीरते हुए

फिर भूख की गहनता का कराएगी अहसास


गाँव के खुले आसमान में

खरखटी चाइपाई पर

दिखेंगे वे फिर अधूरे सपने

जिन्हें पूरा करते हुए

खप गया है उनका पूरा जीवन


देर रात में टिमटिमाते तारों को देखकर

पलकों की कोर थोड़ी नम होकर

कराएगी अहसास

विस्थापन के अनकहे दर्द का


जैसे अपनी जगह से उखड़े हुए पेड़

फिर दूसरी जगह मिट्टी और पानी पाकर

हो जाते हैं लंबवत

ठीक उसी तरह गाँव को लौटे हुए लोग

खड़े होना सीख रहे हैं अपनी जमीन पर

अभी सब कुछ खत्म नही हुआ है उनके लिए

वे चल दिए हैं खेतों की ओर

हाथ में खुरपी, फावड़ा और कुदाल लेकर

अब कतई इंकार नहीं किया जा सकता

कि वे तलाश ही लेंगे अपनी भूख के लिए ईंधन


शहरों से बेदखल हुए लोगों के लिए

गाँव अब भी संभावना है।



रविवार की कविता | कवि : शिव कुशवाहा

संग्रह : दुनिया लौट आएगी

प्रकाशक: प्रलेक प्रकाशन, मुम्बई



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