रविवार की कविता | कवि: चंद्रेश्वर | संग्रह: सामने से मेरे |


कंगाली (कवि) की गाली

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हुए पस्त तुम पूछताछ में

कहा गया देशद्रोही तुम्हें

मस्त बने रहे

बाकी सब

धँसे थे जो आकंठ

दलदल में भ्रष्टाचार के


काले झंडे दिखाना मना

नारे लगाना मना

चीखना मना

बोलना मना

सीखो रहना चुप

वर्ना कुजात करार दिये जाओगे


अब सरकारें नहीं करती बर्दास्त

आलोचना


अघोषित आपातकाल है

सही को बुरा साबित करना

सियासी चाल है

बुरे की चाँदी है

खिल रहा उनका ही

गाल है


आयी है 26 जनवरी

याद आ रही निराला की कविता में

“शिशिर की शर्वरी

हिस्र पशुओं से भरी”

तुम इतरा रहे फहरा कर

सबसे बड़ा तिरंगा

मेरा मन कह रहा

तुम्हें सबसे बड़ा लफंगा


तुम्हारी नियत देख

नहीं कर पा रहा सैल्युट

तिरंगे को

गुस्सा भरा है मन में

भर दो भूसा मेरी खाल में

जब तक है साँस

रहूँगा दुहराता एक हिन्दी कवि की पंक्ति कि

“पोस्टर पर खुशहाली है...

कंगाली के पास आटा नहीं, गाली है

और जिस पर कोई नहीं खाना चाहता

आजादी एक जूठी थाली है!”

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कवि: चंद्रेश्वर 

संग्रह: सामने से मेरे

प्रकाशक: रश्मि प्रकाशन, लखनऊ

 


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