जीवंत संवाद, साहचर्य और आत्मीय बर्ताव जाहिर करने के लिए एक-दूसरे को कोचें, हिलाएँ-डुलाएँ, गतिमान बनाएँ




मनुष्य अपनी भाषा की हदें तोड़ता है। अपनी सीमाओं को अतिक्रमित करता दिखता है। वह अपनी भाषा में वैज्ञानिकता के नए सन्दर्भ एवं प्रमाण जोड़ता है। क्लोद लेवी स्ट्राॅस की दृष्टि भाषा की मौजूदा वस्तुस्थिति पर है। भेड़चाल के उलट वह जड़ परिपाटी से खुद को अलगाते हुए कहते हैं-‘‘समाज या संस्कृति को भाषा में तब्दील किए बगैर हम इस कोपरनिकस जैसी वैचारिक क्रान्ति की शुरुआत नहीं कर सकते हैं जो पूरे समाज को सम्प्रेषण के सिद्धान्त की अभिव्यक्ति के रूप में देखता है।’ 

कई बार हम भाषा की बोधगम्यता, दुरूहता और उसकी सम्प्रेषणीयता को लेकर हाय-तौबा मचाते हैं जबकि कोई भाषा न दुरूह होती है और न सरल; वह समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए समभाव से सेवामाध्यम (Service Tools) के रूप में प्रयुक्त होती है। वह जाति, वर्ग, समुदाय, सम्प्रदाय इत्यादि के छिछले विभाजन से ऊपर की चेतना को संकेतित करती है। किसी भी भाषा की बोधगम्यता सम्बद्ध विषय एवं पाठक या श्रोता की शिक्षा, रुचि तथा संस्कार पर निर्भर करती है। जो भाषा एक सुसंस्कृत एवं सुशिक्षित व्यक्ति के लिए बोधगम्य है, वही असंस्कृत और अशिक्षित व्यक्ति के लिए दुरूह हो सकती है।

संवादधर्मी चिन्तन के विस्तृत फ़लक एवं बहुआयामी दृष्टिकोण को आधारभूत लक्ष्य मानते हुए देखें तो रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव की बात उपयुक्त जान पड़ती है,- ‘भाषा, भाषा-प्रयोक्ता की सोच, उसके सामाजिक सम्बन्धों तथा उसके सामाजिक परिवेश को उद्घाटित करने में एक अहम भूमिका निभाती है। भारत जैसे बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक राष्ट्र के सन्दर्भ में तो भाषा का समाज संदर्भित अध्ययन और भी सार्थक सिद्ध होता है। साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी भाषा-समुदाय, उसकी अधीनस्थ बोलियाँ, उसकी साहित्यिक शैलियाँ तथा उसके प्रयोजनमूलक विकल्पों के समूह हिंदी भाषा के समाज संदर्भित अध्ययन को प्रचुर सामग्री उपलब्ध कराते हैं।’

एक जरूरी बात यह कि हम हमेशा जीवंत संवाद, साहचर्य और आत्मीय बर्ताव जाहिर करने के लिए एक-दूसरे को कोचें, हिलाएँ-डुलाएँ, गतिमान बनाएँ; क्योंकि जड़, स्थिर, निष्प्रभ, निष्क्रिय हो जाना मानुष स्वभाव हरग़िज नहीं है। ऐसे में भारतीय भाषा-दर्शन सहित कार्ल माक्र्स की द्वंद्वात्मक-चिन्तन पद्धति हमारे लिए सहज पाथेय है जो यह मानती है कि ‘संसार का विकासक्रम वाद(थीसिस), प्रतिवाद(एंटी थीसिस) एवं संवाद(सिंथीसिस) के त्रैत से सर्वदा ऊध्र्वगामी होता है।’


(‘संचार की संस्कृति’ विषय पर प्रो. अवधेश नारायण मिश्र से राजीव रंजन प्रसाद की बातचीत पर आधारित)