कविता | प्लेग के सरदार के बारे में | डॉ. रामाज्ञा शशिधर


इतना बड़ा बोझ उठा नहीं पाऊंगा
इतना बड़ा बोझ क्यों उठाऊंगा!

मेरी आत्मा का नगर क्यों एक खंडहर है
शताब्दियों पुराने प्रेतों का घर है

चीखें हैं चीत्कारें हैं पुकारें हैं
पुरखों की हड्डियों पर खुदे गुनाह सारे हैं

कंठ से फूटता है इतिहास बेवजह
मुर्दों का सिर दीमकों की तरह

सड़ी हुई डाल पर चिड़ियों का कंकाल
राख भरी बोरियों में चींटियों का अकाल

मय्यत की शहनाई में बदली यादों की अर्थियो
मैं इतना बड़ा बोझ क्यों उठाऊंगा!

मैं धरती के किसी टुकड़े पर बीज
उगने आया था
मैं जंगल की फुनगी पर चिड़ा हारिल
गढ़ने आया था
मैं चट्टान से फूटता पहाड़ी राग
गुजरने आया था
मैं नदी के पानी पर झिलमिल दाग
मिटने आया था

और तुम्हारा शिकार हो गया
सभ्यता सा बीमार हो गया

गल्प दर गल्प मुझे मत दागो
छोड़ दो मुक्त मुझे,भागो

सत्य
अपनी दिशा में सूरज उगाने की अफवाह है
जिससे निकली अंधकार की आंधी
आंखों पर झूठ की चौंध भरती है
चेतना पर राज करती है

न्याय
आत्मा के दालान पर रखा
आदिम जमाने का हुक्का है
जिसकी पीनी कोई और पीता है
गुड़गुड़ सारा टोल सुनता है

अहिंसा
अहं और वासना की दीवार पर
 टँगी जंग लगी जर्जर तलवार
 जिस पर हिरनों कबूतरों बंजारों
 माशूकाओं मजबूरों के रक्ताभ केशों के रेशे चिपके हुए अर्थहीन धुन गुनगुनाते हैं

इंतज़ार का धीरज पिघल रहा है
स्वप्न का उल्का निकल रहा है

मेरी स्मृतियों के अभिलेखागार में
भारी जगह जमाए क्यों हो


कातिलों के सड़े हुए दांत
आस्वादकों की गली हुई आंत

ठगों की ठगित अंगूठियो
खोटरों की लुटेरी गलियो

नजूमियों की बरौनियों के झड़े हुए बाल
बिसात से चुकी हुई घोड़ों की दुलकी चाल

पुरोहितों के शंख में भरी हुई बासी वायु
भविष्य की आंखों में उगे तेलचट्टों की आयु

शुतुरमुर्ग के सिर पर भरम का आकाश
राजा के भांड का सबसे फूहड़ हास

कुक्कुर की पूंछ में बंधे मिरचैया बम
विलासी कोठे के मुजड़े का नृत्य छमछम

गांव के सीवान पर गीदड़ की भभकी
ओ चिम्पन जी! खीखी फीफी सनकी

मेरी आत्मा के नगर के जासूसी किरदार
प्लेग के पिस्सुओं के फिरंगी सरदार

नुनियाई हुई धूलों के पहाड़ हटो
ताड़ से चिपके पीपल मिटो कटो

मैं हरसिंगार की तरह धरती पर झरने आया हूँ
मैं सभ्यतावाली बीमारी और क्यों फैलाऊंगा

यह सब तो सही है लेकिन
इतना सारा बोझ कहां डंप कर पाऊंगा!

- डॉ. रामाज्ञा शशिधर
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