रविवार की कविता | कवि: शहंशाह आलम | संग्रह: थिरक रहा देह का पानी


घर

------

कविता में कहाँ पर है यह घर


घर जिसे चूहों दीमकों ने बनाया

चींटियों मधुमक्खियों ने बनाया

साँपों ने भी बनाया बहुविध बहुरंगा


यह घर जो बेहद महीनी से बनाया गया है

झूठ नहीं हो जाता आपके असुंदर कह देने से


इस घर में ऋतुचर्या अपनाई जाती होगी


बस यहाँ बल और वीर्य बढ़ाने वाली

जड़ी-बूटी नहीं रखी जाती होगी किसी ताखे पर

जैसे आप रखते हैं अपने लिए छिपाकर

खुद को मर्द साबित करने के लिए

अपने घर की औरतों के बीच


हर घर किसी भाषा की तरह होता है

पढ़ लिए समझ लिए जाने लायक


इन घरों में रहने वाले खानाबदोश हो सकते हैं

जिस तरह पृथ्वी और जैसे चाँद जैसे कि सूरज

सबसे कुशल खानाबदोश होते हैं अपने जन्म के वक्त से

लेकिन हर घर अपनी जगह अडिग रहता है

उसके ढह जाने अथवा ढा दिए जाने तक


एक घर परंतु सबके पास कहाँ होता है

जो रोज थिरकता है रोज बजता है रोज गाता है

उनका घर उनके मन में उनके तन में साकार


यह भी सच है मेरे भाई!

मेरी बेअकली की वजह से मेरे पास

कोई घर कहाँ है उनके घर जैसा


मगर मेरे भीतर रोज एक घर बनता है

पूरी खोमोशी से जैसे बनाती रही है

कोई  चिड़िया अपने लिए एक घर।




कवि: शहंशाह आलम

संग्रह: थिरक रहा देह का पानी

प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, जयपुर


रोहित कौशिक के फेसबुक वॉल से