गुरु को समर्पित...
गुरु मानस पिता, शिष्य मानस पुत्र/पुत्री।
जहाँ शिष्य स्नेह का पात्र, और गुरु को श्रद्धा सम्मान।
जहाँ होती भावों की भाषा,
और अंतर मौन-अभिव्यंजना।
गुरु-शिष्य में संवेदना ,
जोड़ देता कुछ यूँ...
कि अंधकार को हर लेने का प्रकाश,
उसमें स्वतः फैलता है।
गुरु, वही है सच्चा
जो सिर्फ पढ़ाता नहीं, बनाता है।
चरित्र आभूषण-सा गढ़कर,
ज्ञान-ज्योति जलाकर,
उसकी क्षमताओं को निखारकर,
कर्त्तव्य का बोध कराकर,
निर्जन वन में भी, जीने का विश्वास भर देता है।
जिसके डाँट-डपट में है प्रेम सुवासित,
और जिसका आशीर्वाद...
ढृढ़ संक्लप भर देता है, निरंतर गतिमान रहने को।
मैं...
चाहती हूँ अपने गुरु से कुछ ऐसा ही ...
जो मेरे भूलों का बोध कराकर,
क्षमा कर सके।
ताकि मैं पश्चाताप की अग्नि में
न जलूँ, न अपनी ऊर्जा क्षय करूँ,
बल्कि, सुधार लाऊँ स्वयं में।
हाँ, जो मुझे जागरूक बनाये,
मुझे दिशा दिखाये।
ताकि कल मैं ‘इंसान’ बन पाऊँ।
- सुजाता कुमारी
(५ सितम्बर २००९ )