नई सदी का मनुष्य | लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता


बहुत-सी तारीख़ें
बिसर गईं हमारी स्मृतियों से
बहुत-सी घटनाओं के चित्र 
नहीं नाचते आँखों के आगे
बहुत-सी चीखें
हम तक पहुँचीं और अनसुनी हो गईं
जो हूक कभी  सीने में उठी थी
उसे भी हमने दबा दी
अपनी ज़रूरतों के भार तले
हम ऐसा ही करते हुए
साबूत मनुष्य बने रहने की
किसी अमिट चिह्न की तरह बचे रहने की
अटूट आकांक्षाओं से घिरे रहे 

हमने रेत पर खेलते बच्चों के
घरौंदें को बनते-बिगड़ते देखा
उसकी रचनात्मकता में नहीं ढूँढ़ी 
किसी बेहतर दुनिया की सूरतें
अपनी समझदारी और ढर्रेपन पर
इतराते हुए
बहुत ठोस बुनियाद पर खड़ी की
पाँच पूसतों वाली इमारत
जिसमें नहीं छोड़ी एक खिड़की भर की जगह
जहाँ से आ सके खुली हवा
जहाँ से दिखाई पड़े
संसार का दुःख
हम गौतम की तरह 
निकल भी नहीं पाए
किसी दुःख की तलाश में
किसी दुःख की चिंता में
हम पत्थरों की दीवारों के बीच
अनवरत होते रहे पत्थर

नई सदी के मनुष्य हैं हम
जिसने हमेशा ही ख़ुद को पिछली सदी से
मुकम्मल और बेहतर कहने में 
कोई कसर नहीं छोड़ी
जबकि हम भूलते रहे
कि भविष्य पत्थरों में भी 
उन्हीं को बचाता है,
जिन पर नहीं होती कोई नक़्क़ाशी!

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