अट्टहास
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जब शूर्पनखायें मिल जाती हैं सीताओं से
और साथ हो लेती हैं
गोपियाँ, राधा, द्रौपदी और कुंती
तब रामायण और महाभारत का
मिट जाता है भेद
न्याय की सभा लगती है
और खुद-ब-खुद शुरू हो जाता है
चीर हरण
स्वतः ही निर्वस्त्र हो जाते हैं
सभापति, पितामह और पति परमेश्वर
जुबाँ की गाँठें खुल चुकी हैं मेरी
अरसों के बंधन से मिले
घाव, छाले और अनगिनत चोटों से
अब रिसने लगा है
पीब, खून और जहर
मेरी फफकती जुबाँ के उस पार
मैं देख रही हूँ
एक ही सभा में
राम को रावण से मिलते
रावण को कृष्ण से बतियाते
कृष्ण को संविधान के पन्ने उलटते
सब का विराट रूप होने लगा है सूक्ष्म
ज्ञान, अभिभान, गरिमा वगैरह
दुबक कर कोने में फड़फड़ा रहे हैं
छिपकली की कटी पूँछ की तरह
अब तुम बचा लो वो सब
जो हम बचाते आए हैं अब तक
देख तो लो ‘इज्जत’ दिखती कैसी है ?
गोरी है ?
काली है ?
देवी है ?
चुड़ैल है ?
या वेश्या ?
हाहाहाहाह
अट्टहास है हमारा
दर्द भरा अट्टहास
बच लो!
कवयित्री: ऋचा
संग्रह: सुनी-सुनाई बातें
प्रकाशक: शशि प्रकाशन, कालिकापुर, सुपौल (बिहार)
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