रविवार की कविता | जीते रहें कुछ पेड़ | संग्रह : जमीन पर होने की खुशी | राजीव कुमार ‘त्रिगर्ती’


पढ़ते हुए

कभी सूँघी है नई किताब की खुशबू

एकदम ताजा किताब

छप-छपाके, सिल-सिलाके

जिल्द में लिपटी

हाल ही में छपी हुई

बिल्कुल ताजा नई किताब


कड़कड़ाते हों जिसके कागज

खोलने पर संगीत की तरह

बजते हों जिसके सुर

हर पन्ने से आए एक अलौकिक गंध

सिलाई पर लगी गोंद

छपाई के रंग के साथ

पेड़ की गंध सनी

कि पढ़ने से ज्यादा

हौले-हौले नाक से

खूशबू पीने का मन हो


पढ़ते हुए

कभी सूँघी है पुरानी

बहुत पुरानी किताब की खुशबू

उससे आती है किसी बुजुर्ग की

गर्म रजाई की खुशबू

गर्म-सा हो उठता है

भीतर कुछ बहुत गहरे

आती है उससे वनौषधियों की खुशबू

और महसूसा जा सकता है बाहर-भीतर

कुछ स्वस्थ होता हुआ

पुरानी किताब की गर्द से

झरती है फूलों की खूशबू अनवरत

कि बैठे हों फूलों का कोई झाड़ थामे

छायादार पेड़ की उड़ती हुई छाया

बन जाती है लकड़ी का फर्श और दीवारें

तन जाती है छत की तरह


दुआ करो कि

जब तुम्हारी अलमारियों की किताबें

पुरानी हो जाएँ

तुमसे बहुत पुरानी

तो सूँघी जाएँ

और भी ज्यादा खुशबुओं के साथ

जाते रहें कुछ पेड़

अपनी सार्थक मृत्यु के बाद भी।


                     ***



कवि: राजीव कुमार ‘त्रिगर्ती’

संग्रह: जमीन पर होने की खुशी

प्रकाशक: शशि प्रकाशन, कालिकापुर, सुपौल (बिहार)


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