रविवार की कविता | अशोक कुमार पाण्डेय | प्रलय में लय जितना




अजनबी

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अजनबी था वह चेहरा जिसे देखकर अपनी याद आती थी

जिन आँखों से उम्मीद के सागर छलकते थे, अजनबी थीं

वह बूढ़ा जिसकी झुर्रियों से पिता झलकते थे, अजनबी था

जिस बच्ची की देह से बिटिया की महक आती थी, अजनबी थी वह मेरे लिए

जिस शहर से चला था वह भी और जहाँ जाना था वह भी अजनबी

इस अजनबियत के बीच इतना अकेला मैं

जितनी कि सामने शीशे के ठीक ऊपर लगी यह चेतावनी

‘अजनबियों से सावधान’


वह जो ठीक मेरे पैरों के पास धरी मैली कुचैली गठरी

बम हो सकता था उसमें

मेरे सिर के ठीक ऊपर रखा रैक में जो ब्रीफकेस बँधा रस्सियों से

बम हो सकता था उसमें

या फिर मानवबम हो सकती थी वह बच्ची जिसकी महक बिल्कुल मेरी बिटिया सी

वह जिसकी खिचड़ी दाढ़ी से झलकता जिसका मजहब

कौन जाने अगले स्टाप पर पुलिस हो उसके इन्तजार में

वह जिसके ढलकते पल्लू पर गिर गिर पड़ रही थीं निगाहें तमाम

कौन जाने अभी रिवाल्वर निकाल कर अपहृत ही कर ले सारी बस को

कौन जाने जहर कौन सा हो इस चने में

जिसे पाँच रुपये में मुझे देने को बेकरार वह लड़का बमुश्किल सात साल का


इतने चेहरे अखबारों के पन्ने से निकलकर तैरते हुए इस उमस में

इतनी आवाजें चैनलों के जंगल से निकल फैलतीं इस बियाबान में

चुप्पियाँ यह कैसी जो पसरती जातीं इस कदर भय की तरह भीतर

यह कैसा वीराना आवाजों के इस उजाड़ जंगल के बीच

जो करता मुझे अकेला इस कदर

यह कैसा भय पसलियों के बीच दर्द सा रिसता दिन-रात


यह कैसी सावधानियाँ कि इस सामूहिक निगाह में

बनता जाता मैं और...और अजनबी...

बेहतर इससे कि खा ही लूँ चने आज जो खा रहे सब जून की इस दुपहरी में

और मरना ही हो तो मर जाऊँ इस भीड़ के हिस्से की तरह..



कवि: अशोक कुमार पाण्डेय

संग्रह: प्रलय में लय जितना

प्रकाशक: दखल प्रकाशन, दिल्ली


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